कुछ पाने की चाह
दूर बैठी
पढ़ रही हैं,
किताबों में आँखों
को गढ़ रही हैं
शोर हलचल से
भी लड़ रही है,
कुछ दूर बैठी
पढ़ रही हैं
आसपास के परिवेश
से अंजान बनी
चुपचाप कुछ दूर बैठी
पढ़ रही हैं
नयन उसके निश्चल है
किताबों में ही रखा उसका कल है,
पल पल हो कीमती
वैसे हर एक पल को गढ़ रही है
अनागत का दिनकर
बन रही है
भूख प्यास से व्याकुल
होकर भी पढ़ रही है
तपन में तप रही है
तिमिर से दूर
ओजो की तरफ बढ़ रही है
कुछ दूर बैठी वो युवानीका
पढ़ रही हैं
खरे उतर रही है
खाव्बों पे,
जलते धूप में भी
एकाग्र होकर के पढ़ रही है
जीवन में नये सुनहले
रंग भर रही है,
नवजीवन का नवविहान्
बनकर उभर हो रही है
वेदनावों में भी साहससिका
बनकर उभर रही है
कुछ दूर बैठी पढ़
पढ रही हैं