कुछ परछाईयाँ चेहरों से, ज़्यादा डरावनी होती हैं।
कुछ परछाईयाँ चेहरों से, ज़्यादा डरावनी होती हैं,
गहरी खाईयां मैदानों से, बचाती वहाँ दिखती हैं।
शोर चुभता नहीं, रूह को छलनी किये देता है,
खामोश दर्पण व्यक्तित्व को, शब्दों की सज़ा देता है।
द्वेष प्रेम के आवरण में, छिप के चला आता है,
और रक्तरंजित हृदय, खुद को हीं दोषी वहाँ पाता है।
उठती उस चीख़ में, आवाज़ें कहाँ होती हैं,
जैसे दर्द भरी आँखें, आँसुओं से जुदा होती हैं।
करवाहट सत्य का, हर मधुर भ्रम को कुचल देता है,
मृगतृष्णा में जलता वो मयूर, खुद को जलन देता है।
उत्कृष्टता के नक़ाब में, स्वार्थ हँसता चला आता है,
मासूमियत को कुचलता है, और खुद को ऊँचा वहाँ पाता है।
कुछ हवाएं जंगल में, आग जैसी होती हैं,
सुकूं के चादरों को जला कर, खुद गहरी नींद में सोती हैं।
एहसास विरक्ति का, जहन को खुद से मिला देता है,
हर एक चोट याद रहती है, पर दर्द भुला देता है।
साज़िशों के इस खेल में, विखंडित हृदय तो हो जाता है,
पर दर्द की इस स्याही से हीं, जन्म शब्दों का हो पाता है।