कुछ न कुछ होंगी यकीनन उसकी भी मजबूरियाँ
कुछ न कुछ होंगी यकीनन उसकी भी मजबूरियाँ ।
यूँ ही तो फूँकी न होंगी उसने दिल की बस्तियाँ ।।
आदमी हैवान की भी शक्ल ले सकता है गर ;
हद से आगे तक गुजर जाएँ कभी लाचारियाँ ।
हमको जिस इकरार का अल्फ़ाज़ में था इन्तजार ;
लब रहे खामोश, सब कुछ कह गयीं खामोशियाँ ।
जिस दिए ने उम्र भर बाँटी सभी को रौशनी ;
उस दिए की गोद में हरदम रहीं तारीकियाँ ।
जब पहल करना तो इतना ध्यान में रखना जरूर ;
पीठ के पीछे से ही करते हैं सब मक्कारियाँ ।
पास होकर भी कभी हम मिल न पाए दोस्तों ;
दास्ताँ अपनी रही ज्यों रेल की दो पटरियाँ ।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’