कुछ नही पहले सा
इस शाख तो कभी उस शाख उड़ती थी पहले
खत्म होती धरा में अब उदास सी टहले,
गोरैया उड़-उड़ मुंडेर पर चहकती थी सुबह-शाम,
अब बची कौन सी शाख जिस पर वो रह ले।
गुलमोहर,पलाश,कचनार के पुष्पों से सजी
अब नही उद्यान यहाँ बस हैं बहुत से घपले।
पंछियों की सत्ता पर भी किया अतिक्रमण,
सुन मानव की आवाज वो हरदम ही दहले ।
खत्म किया हमने मिलकर पर्यावरण और हरियाली,
कितना है धैर्य धरा में जो इतना दर्द सहले।
आरती लोहनी