कुछ तेज हवाएं है, कुछ बर्फानी गलन!
कुछ तेज हवाएं है, कुछ बर्फानी गलन!
मँझधार में है नैया, दूर कहीं अपना है वतन !!
जीवन नदिया में, तलीफों की लहरें हैं!
हर रोज़ मिली जो पीडाओ की नहरें है!!
क्या सोच के निकला था भूल गया अपनी वो लगन?
कुछ तेज हवाएं….!!
असफलताओं की भंवरों से, जाने क्यों डरता हूं?
आशाओं की पतवारों से, फिर आगे बढ़ता हूं!
जो पार निकल बैठे, उनसे अब कैसी हो जलन?
कुछ तेज हवाएं हैं…!!
असफ़लताओं की भँवरों में, लाखों ने जान गँवाई!
पार पहुचने वालों ने,केवल अपनी धाक जमाई!!
मंज़िल की ख़ुशी में भूल गए ,अपनी वो थकन!
कुछ तेज़ हवाए है, कुछ बर्फानी गलन!!
मौलिक रचना सर्वाधिकार सुरछित
बोधिसत्व कस्तूरिया,एडवोकेट,कवि,पत्रकार
202,नीरव निकुज,फेस-2 सिकंदरा,आगरा-282007