कुछ कहती है, सुन जरा….!
” कुछ कहती हैं सुन जरा…
नदी,नाले, सरोवर, बांध और झरनें…
हैं हम सब…..
प्रकृति के भाई और बहनें…!
हमें न बिखरो तुम…
विकास के नशे में झूम….!
हो न जाओ तुम…
अपने आप से गुम….!
रुक, ठहर और कुछ सोच जरा…
नदी हैं, नाले हैं, सरोवर-बांध-झरनें हैं…
और ये प्रकृति है ..
तो ये जीवन है हरा-भरा…!
छत और छतरी तो…
कुछ पल और….
कुछ समय का सहारा होता है…!
लेकिन…..!
प्रकृति तो प्रतिक्षण, हरपल…
और हर मौसम सहारा देती है…!
सजा लो ज़रा इसे….
संवार लो ज़रा इसे….!
अन्यथा…
मच जायेगा धरती पर कोहराम…
और…
लग जायेगा…
जीवन की गति में पूर्ण विराम…!
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