कुछ कर चले ढलने से पहले
कुछ कर चले ढलने से पहले
सूरज इस उम्मीद मै निकलता होगा
कुछ कर चले ढलने से पहले,
ए दरिया नदी तेरी ना हो सकी
समुद्र में मिलने से पहले,
जो रास्ता मंजिल तक जाता ही नहीं
उसे रास्ते को बदल लिया जाता
मंजिल से पहले,
यह मोहब्बत है कि कहीं का नहीं छोड़ेगी
काश उसको अपना बना लिया जाता
किसी का होने से पहले,
रास आ गई होती जिंदगी उसकी
वह किसी और की मांग का सिंदूर ना होता……
अगर किसी और के होने का डर ना होता
उसे पाने की जिद में इतना दिल मजबूर ना होता….
जिंदगी है कि दर्द ए दिल की दवा मिलती कहां है
दुख है
दर्द है
मौसम है …..प्रतिकूल फिर भी ,
चल रहा समा है…..।
पतंग भी है, उड़ान भी है ,डोरी भी है, जिद भी है ,आसमान भी है, उड़ान भी है मैं भी हूं वह भी है आसमान छूने की जिद भी है
जिंदगी से पहले ,
न जाने कौन से जन्म का बदला निकालते हैं
मेरी आंख के झरने से दरिया निकलते हैं
काश दुनिया देख ली जाए ……
आंख भरने से पहले,
जिंदगी की तलब है क्या अंधेरा है रोशनी में सब कुछ धुंधला दिख रहा है रोशनी में…….
चांदनी रात में कहीं चांद ना डूब जाए अंधेरे की चपेट में ……..
मैं उसे अपना बना लूंगा ….
रात ढलने से पहले,
चांदनी रात में ,
नदिया किनारे साथ में ,
नाव पर सवार हम एक हो जाए ……
नाम डूबने से पहले,
कोई रास आए ऐसा आए फिर नही जाएं कभीं …..
सांस छूटने से पहले,
✍️कवि दीपक सरल