कुछ औरतें
कुछ औरतें रहती हैं चुप,
जानती,बुझती,समझती सब कुछ,
पर रहती हैं चुप,
सुनती हैं वो चुपके से कलरव चिड़िया का,
माँग लेतीं हैं उससे पर उड़ने के लिए,
पर दिखाती हैं यूँ कि नही आता उन्हें उड़ना,
चुभती है उन्हें धूप,
जानती,बुझती,समझती सब कुछ,
पर रहती हैं चुप,
अक्सर देखती हैं अठखेलियाँ तितली की फूलों के संग,
उधार ले लेती हैं ये रंग इन तितलियों के,
और भर देतीं हैं अपने सतरंगी सपनों में चुपके से,
और दिखाती हैं दुनिया को फीका रंग ख़ुद,
जानती,बुझती,समझती सब कुछ,
पर रहती हैं चुप,
चुपके से खोलती हैं ये खिड़कियाँ,आवारा पवन के लिए,
हवा से लेती हैं उड़ना उधार और निकल जाती हैं,
खिड़कियों के रास्ते से खुले आकाश में,
पर बंद रखती हैं कपाट दुनिया को दिखाने और कहने को रुक,
जानती,बुझती,समझती सब कुछ,
पर रहती हैं चुप,
धीरे से सोखतीं जाती हैं ये फूलों की शोख़ियाँ खोल केश,
बाँधती फूलों को इनमें और इतराती,
सुगंधों को अपने अंदर समाती,
पर सब के सामने आती बँधे बालों के साथ,
फूलों को गमलों में सजाती हुई ख़ूब,
जानती,बुझती,समझती सब कुछ,
पर रहती हैं चुप,
समेटती हैं ये शांति से अपने हिस्से की बारिश,
ठंडी फुहारों में ख़ुद को भिगोते हुए भूल जातीं हैं मर्यादाएँ,
भिगोने देतीं हैं नन्हीं बूँदों को अपना बदन और सर्वस्य अंतर्मन,
पर दहलीज़ के अंदर पाँव रखते ही,
सूखा देतीं हैं अपने कपड़ों को चुपके से,
मोड़ देतीं हैं बादलों का रुख़,
जानती,बुझती,समझती सब कुछ,
पर रहती हैं चुप,
रोज़ रात को निहारती हैं चाँद को,
आसमान और ख़ुद को आईने में,
भिगोतीं हैं चाँदनी में अपने पैरों को,
और ख़ुद पर ही होती मोहित अपने अक्स को निहार कर,
रहती अपने आप में बेहद ख़ुश,
जानती,बुझती,समझती सब कुछ,
पर रहती हैं चुप,
देखतीं हैं ये भी ख़्वाब और ओढ़ लेतीं हैं अपने हिस्से का आसमान,
कर लेना अपने मन की,
बंदिशों में भी जी लेना भरपूर और दिखाना रास्ता अपने जैसी अन्य को जीने का,
कर लेना अपने आप को पूरा,
कर लेना दीप्त अपनी आत्मा और मन को,
ढूँढ लेना हर दुःख में सुख,
जानती,बुझती,समझती सब कुछ,
पर रहती हैं चुप,
कुछ औरतें………….