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11 Dec 2016 · 1 min read

कुछ इस तरह ज़िंदगी में जान फूँकते रहे

कुछ इस तरह ज़िंदगी में जान फूँकते रहे
कभी उन्हें मनाया कभी हम रूठते रहे

जीने की अदाएँ तो कोई गुल से सीखे
टूटे जिस शाख से उसी से फूटते रहे

बहुत से लोग मिलते हैं राह-ए-ज़िंदगी में
कुछ आते रहे याद कुछ को भूलते रहे

जज़्बा रहा था दोनों में बराबर शायद
हम लुटते रहे प्यार में वो लूटते रहे

कुछ तो हवाओं से कुछ आँधियों से रब्बा
ख्वाबों के पत्ते शज़र से टूटते रहे

यूँ भी हुआ आसां कुछ सफ़र-ए-ज़िंदगी
कुछ जुड़ते रहे रिश्ते कुछ छूटते रहे

कितना हरा था पत्ता गुल था कितना लाल
शाख से क्या टूटे ‘सरु’ फिर सूखते रहे

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