कुछ असली दर्द हैं, कुछ बनावटी मुसर्रतें हैं
कुछ उम्र के सब्ज़ बाग़ हुए, कुछ हकीकतें हैं,
कुछ असली दर्द हैं, कुछ बनावटी मुसर्रतें हैं।
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कब तक मुकरिएगा, पगडंडियों के हालात से,
राहों में कदम-कदम पर, नई-नई आफ़तें हैं।
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बदला-बदला है, मिजाज़-ए-परवरदिगार भी,
उसने भी कह दिया, बस उम्मीदें ही राहतें हैं।
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माना कि बहुत आसान है, चोला बदल लेना,
लेकिन बदलती कहाँ, जिगर की फ़ितरतें हैं।
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मेरी ग़ज़लों में मक़्ता नहीं, मतला ही मतला है,
देखिए, किस क़दर हमें लिखने की चाहतें हैं।