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29 May 2024 · 1 min read

कुछ असली दर्द हैं, कुछ बनावटी मुसर्रतें हैं

कुछ उम्र के सब्ज़ बाग़ हुए, कुछ हकीकतें हैं,
कुछ असली दर्द हैं, कुछ बनावटी मुसर्रतें हैं।
****
कब तक मुकरिएगा, पगडंडियों के हालात से,
राहों में कदम-कदम पर, नई-नई आफ़तें हैं।
****
बदला-बदला है, मिजाज़-ए-परवरदिगार भी,
उसने भी कह दिया, बस उम्मीदें ही राहतें हैं।
****
माना कि बहुत आसान है, चोला बदल लेना,
लेकिन बदलती कहाँ, जिगर की फ़ितरतें हैं।
****
मेरी ग़ज़लों में मक़्ता नहीं, मतला ही मतला है,
देखिए, किस क़दर हमें लिखने की चाहतें हैं।

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