“कुछ अनकही”
कुछ कहते कहते रुक गए,
कुछ रुकते रुकते कह गए।
सच अकेला था खड़ा,
झूठ फरेब से विवश।
कब तक आखिर कब तक,
वो भी सहते सहते कह गया।
सच पर हुआ यूं प्रहार,
हटते हटते चोट उसको लग गया।
एक सच और सौ झूठ के रिश्ते,
कैसे भला टिक पायेगा।
इन्ही उलझनों में सच पड़ा,
आज समाज मे कितना रिश्ता ढह गया।
सच कभी ना हारा है,
झुठे और फरेबी से।
मानव मानव नेह निभाये,
कुतर्को से भरमाये।
भव्य भावना भर ना सको तो,
नेकों को मत भरमाओ।
पुष्प अगर पथ पर बिछा ना पाओ,
तो उस पर ना बबूल बिछाओ।
नर तन रत्न ना फिर संभव,
इसकी परम प्रभा प्रकटावो।
अजीब उलझनों में रह गए,
बहुत से सच अनकहे रह गए।
लेखिका:- एकता श्रीवास्तव।
प्रयागराज✍️