कुंदलता सवैया
किशोर/सुख/कुंदलता सवैया
ललगा ललगा ललगा ललगा ललगा ललगा ललगा ललगा लल
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किसको अपना समझें जग में अपना न लगे जब प्राप्त हमें तन ।
कुछ धर्म न कर्म हुआ हमसे सिर कर्ज लदा अरु पास नहीं धन ।।
कुछ ज्ञान नहीं कुछ ध्यान नहीं गुजरा बस व्यर्थ लगा यह जीवन ।
अब डोर लगा हरि से अपनी सुध ले कुछ सोच- विचार अरे मन ।।
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महेश जैन ‘ज्योति’,
मथुरा !
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