कुंती का भय
विचार
जब भाव बन जाते हैं
और भाव भीड़
उसका भय क्या होता है
यह कुंती के कांपते हाथ जानते हैं
अपने दीप्तिमान पुत्र को
नदी में बहा
वह खड़ी है
विवेकहीन
निस्तब्ध
उसे क्षमा कर दो कर्ण
साहस के संचय की भी
होती है अपनी यात्रा
तुम्हारी मां
अभी उन पड़ावों से अन्जान है
वह अभी
व्यक्ति नहीं
समाज है ।
शशि महाजन – लेखिका