कुंडलिया
कुंडलिया
चक्की पीसे भोर में, दूजी भूख मिटाय।
दो पाटन के बीच में, ममता पिसती जाय।
ममता पिसती जाय,स्वजन पर प्यार लुटाती।
अरमानों को पीस, श्रमिक की श्रेणी पाती।
सुन ‘रजनी’ बतलाय, अडिग माँ धुन की पक्की।
घुन सी पिसती जाय, डालकर गेहूँ चक्की।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
कुंडलिया
‘शब्द’
कहना चाहूँ बात मैं, शब्दों से लाचार।
शब्द हृदय उद्गार हैं, रिश्तों के आधार।
रिश्तों के आधार,बने व्यवहार निभाते।
नमक छिड़कते घाव, यही संताप दिलाते।
कह ‘रजनी’ समझाय ,मौन को मुखरित करना।
शब्द तोल के मोल, कभी अपशब्द न कहना।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
कुंडलिया
‘बबूल’
गुणकारी तरु जान के, बनो बबूल समान।
परहितकारी काज कर,पाता जग में मान।
पाता जग में मान शाख में शूल समाए।
औषधि गुण की खान वैद्य की संज्ञा पाए।
कह ‘रजनी’ समझाय, वृक्ष है ये हितकारी।
गोंद, पात, जड़, छाल बनाते तरु गुणकारी।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’