#कुंडलिया छंद//सबसे बढ़कर प्रेम है
सबसे बढ़कर प्रेम है , देता यह संस्कार।
घृणा हृदय की त्यागकर , प्रेम करो स्वीकार।।
प्रेम करो स्वीकार , सुखी होगा हर जीवन।
सुरभि लिए ज्यों पुष्प , खिले महकाए मधुबन।
सुन प्रीतम की बात , गुरू कौन यहाँ रब से।
मालिक चाहे प्रेम , प्रेम करो यहाँ सबसे।
मिलते मन संयोग से , रखते उच्च विचार।
इक दूजे का मान कर , महकाएँँ घर-द्वार।।
महकाएँ घर-द्वार , करें शोभित सब रिस्ते।
जीते भरकर मौज़ , नहीं जीवन वो घिस्ते।
सुन प्रीतम की बात , हृदय चाहत से खिलते।
जैसे काजल नैन , मग्न होकर हैं मिलते।
#आर.एस. ‘प्रीतम’
#सर्वाधिकार सुरक्षित कुंडलिया