कीमत सपनों की
थी एक छोटी सी बस्ती,
पर बड़े अरमानों वाली।
अरमान था शहर बनने का,
ख्वाब था चकाचौंध का,
भागते – दौड़ते दिन का,
और जागती हुई रातों का।
आखिर सपना हुआ पूरा,
बस्ती हटा, नींव रखी गई शहर की।
बस्ती बना शहर,
और मिला हर्जाना।
जो खरीद न सका,
बचपन की ख्वाहिशों को,
मां की दवाइयों को,
और बच्चों की पढ़ाई को।
उस बसते हुए शहर की नींव में,
दफ़न हो गए अरमान।
जिसे खोदा खुद,
बस्ती वालों ने था।