किस लिए।
काफ़िया- जला(आ)
रदीफ-लिए।
माना अल्लाह की है तू बेनज़ीर अदा इन्सान,
फिर अपने ऊपर खामखां रहा इतरा किस लिए।
है रहा निगल आफताब रोज़ ताऱीक ज़ीस्त की,
दे रहा आदम को नूर,खुद को जला किस लिए।
है रुह शैतानी आदम,लिबास सफ़ेद पोश,
गुरुर भी बला का है भला किस लिए।
अब इसको लूट उसको मार बस है तेरी बिसात, फिर
खुद खुशी या खुद की खुशी का कायदा किस लिए।
है ख़ूब गद़र मचाया कर प्रदूषित जहां को,
अब जा रहा मंगल पर भी तू भला किस लिए।
हररोज सज रही’नीलम’ ज़ीस्त,बलि के बकरे की तरह,
फिर रोज़ बढ़ रहा कज़ा का, काफ़िला किस लिए।
नीलम शर्मा