किस मशीनी दौर में रहने लगा है आदमी
किस मशीनी दौर में रहने लगा है आदमी
दर्द के सागर में गुम बहने लगा है आदमी
सभ्यता इक दूसरा अध्याय अब रचने लगी
बोझ माँ-ओ-बाप को कहने लगा है आदमी
दूसरे को काटने की ये कला सीखी कहाँ
साँप के अब साथ क्या रहने लगा है आदमी
लुट रही है घर की इज़्ज़त कौड़ियों के दाम अब
लोकशाही में यूँ दुःख सहने लगा है आदमी
इक मकां की चाह में जज़्बात जर्जर हो गए
खण्डहर बन आज खुद ढहने लगा है आदमी
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