किसी और का सिन्दूर
कविता
किसी और का सिन्दूर
*अनिल शूर आज़ाद
बरसों के बाद/उस दिन
जब हम/मिले थे
अनायास तुम/थम गई थी
एकाएक मै/रुक गया था
मै/तुम्हारी ओर बढ़ा था
यंत्रवत तुम/इधर खिंची थी
हमें यों/सड़क के बीच देखकर
वाहनों के साथ-साथ
हवा भी/कुछ पलों के लिए
जैसे/ठहर सा गई थी
फिर सहसा/तुम पीछे पलटी थी
स्वयं मैं/चौंका था
लोगों को भी/जैसे
सांस में सांस/आई थी
सच कहना/अनामिके
तुम्हारी मांग में चमकता
किसी और का सिन्दूर/ही था न
जिसने/इतना कुछ
बदल दिया था..
(रचनाकाल : वर्ष 1992)