किसान
संजोकर अश्रुओ को तुम नयन तकदीर बोते हो
दिलो में वेदनाये ले तुम अपनी पीर बोते हो
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कभी हर्षित नहीं मन बस समर संघर्ष से होता
तपिस में शुष्क सुख के तुम ये अपनी नीर बोते हो
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कही माँ बाप बूढ़े जी रहे है बस उम्मीदों पे
ढकी इज्जत फटी साड़ी में तुम वो चीर बोते हो
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तवे सी तप रही धरती है ज्येष्ठ मास ग्रीष्मो में
वही श्रावण और पौष के रात्रि की जागीर बोते हो
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करे ये मन भी अंतरद्वंद है इस बात को लेकर
नही है भाग्य में शवपट भी तुम वो शरीर बोते हो
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है कन्यादान को बेटी पड़ी घर में बिन पैसे के
नही पढ़ पा रहा बेटा जो तुम वो लकीर बोते हो
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संजोये है सभी दुःख दर्द को हसकरके जो उर में
वरण करता मरण का जो वो तुम वो धीर बोते हो
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नमन हे अन्नदाता पुत्र धरती के तुम्हे करता
शिवम् खुशिया ही खुशिया हो जो तुम ये पीर बोते हो