किसान
शीर्षक – किसान
खेत की मेड़ पर बैठ,
ये सोच रहा,
सबके पेट का हल,
मेरे पास है,
बस मेरा हल किसी के
पास नहीं।
जिस हल से,
चीर कर धरती का सीना
तैयार करता हूँ अन्न,
भूख मिट सके जिससे सबकी।
चलाता हूँ जब हल
ढक देती है
पावन माटी मेरा तन,
न लगे ठंड या गर्मी
ये सोचकर।
थक गया हूँ अब,
क्या है कोई
सुनने वाला मेरी
पुकार,
सबकी भूख मिटाने
वाला,
जीवन देने वाला,
इतना मजबूर क्यों है,
दो वक्त की
रोटी भी नहीं दे
पाता खुद के
परिवार को।
भरा रहता है
आशंकाओं से मन।
बो कर अन्न
भी
आश्वस्त नहीं होता।
क्या होगी बारिश,
लहलहाएगी फ़सल?
मशीनी युग में
क्या कहीं
है किसान का अस्तित्व?
पर,
मन में विश्वास
भर कर
फिर बढ़ा कर
कदम
जुट जाता है
नए आस और
विश्वास के साथ।
लगता है चीरने
सीना धरती का
और
अपने पसीने की बूंदों से
नम कर देता है बंज़र धरती,
जहां पर नव आशाओं
की फसल होगी।।
-शालिनी मिश्रा तिवारी