किसान
******किसान******
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किसान की यही कहानी
नई नहीं है बहुत पुरानी
आरम्भ से यही है कथा
दयनीय अन्नदाता व्यथा
कभी साहूकारों ने मारा
कभी आढ़तियों ने मारा
कभी मौसम मारे मार
कभी सरकारों की मार
कर्जे में हुआ है कर्जदार
पल पल मरता मददगार
देशभर का रहे पेट भरता
खुद भूखा रहता है मरता
बंजर भूमि बना उपजाऊ
तन धन बना कर बिकाऊ
श्रम अथक पर वहीं मंजर
तन हो जाए अस्थिपिंजर
हाड मांस का वो पुतला
समय आगे रहे है झुकता
मेहनत करता है बेशुमार
रहता फिर भी है लाचार
दुनिया का वो अन्नदाता
निज को अन्न नहीं भाता
कभी सूखा तो कभी बाढ
होती खड़ी फसल बर्बाद
अन्न धान्य खेत में सड़ता
खरीददार नहीं है मिलता
मिट्टी में सोना है उपजाए
रोना धोना नसीब में पाए
मिट्टी में मिट्टी बन जाता
हाथ खाली ही रह जाता
अन्न के भरता वो अंबार
निज खाली रहते भंडार
चाहे सर्द कितनी हो रात
खेत में कटता दिन रात
जेठ महीने में रहे तपता
रेट फसल का ना लगता
बेटे या बेटी की हो शादी
हारी – बीमारी आ जाती
कर्जे की गठरी है उठाए
छोटे मोटे खर्चे निपटाए
कोई विपदा आए भारी
स्वप्नों पर फिरतीं आरी
बचपन या फिर जवानी
बुढ़ापा अंतिम निशानी
दुखी जीवन बसर करता
हर पल रहे घुटता मरता
बैंक में लिमिट ना भरती
बैंकों के अधीन है धरती
सुखविन्द्र का है निवेदन
कृषक सूर्योदय आवेदन
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)