किसान हूँ हाँ किसान हूँ मैं
बह्र-मुतक़ारिब मक़बूज असलम
ग़ज़ल
सितम करो तुम या ज़ुल्म ढाओ, सहूंगा सब बेज़ुबान हूं मैं।
मुझे सभी कहते अन्नदाता,किसान हूं हां किसान हूं मैं।।
कभी है सूखा कभी है बारिस, कभी है बिजली की ये कटौती।
कटे परो का मैं हूँ परिंदा, कि उसकी झूठी उड़ान हूँ मैं।।
कभी उठाई जो बात हक़ की,मिली है लाठी चली है गोली।
दिये हुकूमत ने ज़ख़्म दिल पर, तो उनके रुख़ पे निशान हूं मैं।।
भॅवर में भावों के मैं फसा हूं, न छोर मेरी मुसीबतों का।
अगर मैं डूबा तो तुम भी डूबो, तुम्हारा अब इम्तिहान हूं मैं।।
लगी है कर्जों से होड़ मेरी, कभी हराया कभी मैं हारा।
गले लगा मौत सो गया हूं, सफ़र की गहरी थकान हूं मैं।
ये कैमरे को मेरी तरफ भी, ज़रा घुमाओ सवाल पूछो।
जवाब हूं हर सवाल का मैं, चुनाव तेरा रुझान हूं मैं।।
चलो उठो एक हो लड़ो अब, नहीं है कोई “अनीश” अपना।
सियासी फिरकों में मुझको बाँटा, कि जैसे उनकी दुकान हूँ मैं।।
—-अनीश शाह 8319681285