किसान की जीवटता
किसान की जीवटता
अवशान वर्षा रित बढ़ता तुषार
ठिठुरती सांझ ओझल उदित
सांध्य गीत की मधुर ध्वनि
सिमटती स्वर्णिम यामिनी की ओर।
कांपते होठ विचलित कदम
कट -कटाते दांत नाचती रात
सीना समीर का भेदते हूए
बढ़ता किसान खेतों की ओर ।
धुंधले बादल शबनम की
राह खड़ी भयभीत हो रोकी
शीत के पीर भारी हो आंखे
स्रोत से बहते नैनो के लोर ।
झंझावात की असुर रागिनी
जड़-चेतन सब शीत विदारणी
पथ-प्रदर्श हैं चन्द्र-चांदनी
झुका तन जैसे कमाठ की ओर ।
हिम कड़ भयी रजत की चादर
तानी चिरनिद्रा सोई बसुधा सागर
झूलते मोती पौधों की पाती
झर- झर गीरते बसुधा की ओर ।
खेत सींचते निमीड़ यामिनी
थर-थर कांपती हस्त लकीर
फूटी कोपले पादों के पीर
टक-टकी बांधे आशाओं की ओर ।
खोया बचपन आया यौवन
हड्डियां गल गई खेतों में
एक टक विमूढ़ हो देखता मौन
बढ़ चला कदम अम्बर की ओर ।
—– सत्येंद्र प्रसाद साह (सत्येन्द्र बिहारी ) —–