किसान का दर्द
मैं किसान हूँ साहब!
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सीना जमीं का चीरकर,
कई उम्मीदें बोता हूँ ।
रहता हूँ मैं वीरान में,
सब सुख चैन खोता हूँ।
नहीं होती पूरी कमियाँ,
घुट घुट कर मैं रोता हूँ,
मैं किसान हूँ साहब!
कहाँ चैन से सोता हूँ?
न चिंता परिणामों की,
बस उम्मीदें बोता हूँ ।
त्याग सुख सुविधाएं,
सबका पेट भरता हूँ।
कभी सूखा कभी बारिश,
चोट दिल पर सहता हूँ ।
मैं किसान हूँ साहब!
कहाँ चैन से सोता हूँ?
सत्ता आस दिलावे हमको,
मीठी शाबाशी पाता हूँ ।
तपकर होता बदन काला,
सबकी भूख समझता हूँ।
तन धन की लागत कभी,
उपज से ज्यादा देता हूँ।
मैं किसान हूँ साहब!
कहाँ चैन से सोता हूँ?
लहरे जब खेत की क्यारी,
गदगद भाव में होता हूँ ।
तभी कहीं हो ओला वृष्टि,
देख वक्ष सहलाता हूँ ।
नहीं हार उम्मीदें अपनी,
कल की आस लगाता हूँ,
मैं किसान हूँ साहब!
कहाँ चैन से सोता हूँ?
सीखा हमने समय से लड़ना,
भरोसे की क्यारी बनाता हूँ।
पसीने से होकर तर बतर,
फसलों को अपने पटाता हूँ।
एक एक कण बिनकरके ,
पेटों के दाने जुटाता हूँ।
मैं किसान हूँ साहब!
कहाँ चैन से सोता हूँ?
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अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
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