किससे कहूँ और कैसे कह दूँ?
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किससे कहूँ और कैसे कह दूँ? कि वो नाराज़ है
मेरे अन्दर ये लाज, आखिर कब तक रहेगी?
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कोई खास मुझे मिले वक्त तन्हा, तो कह दूँ मैं मगर
तमाश के जुबाने नाराजगी, किस्से-ए-कदर की अच्छी नहीं लगेगी
यहाँ किस आवाज मे बिखर जाऊँ? या शोर को होता देख लूँ
गया जो सामने ”शर्म” से ताज, आखिर कब तक रहेगी?
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गलीचा ओढ़ने से अगर सब कुछ होता, तो क्यूँ कहता मै?ं
गलीचे में बारिश होती अगर अदा की, तो नूर क्या कहेगी?
माना कि रूप को देखने की हिमाकत, नहीं है मुझमें
तो ये झूठी चादर की नमाज, आखिर कब तक रहेगी?
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भटका हूँ इस तरह कि भूला हर मर्ज, हर तोबा-ए-अतीत
कहाँ बेठी रह गयी सादगी? कहाँ तक आवारगी कदम बढ़ाएगी?
वो अदब, वो रहम, क्या काज कर चली मुझ पर
मुझसे लिपट गयी जो आज, आखिर कब तक रहेगी?
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उनके आगोश में रहना इतना हासिल हुआ, कि कह दिए इस कदर
खुदा ने तो मौत तय करा दी, मगर रहनूमा, जान-ए-उम्र और कितनी बढ़ेगी?
किससे कहूँ और कैसे कहूँ? कि वो सितार के साज हैं
उन पर थिरकती उंगलियों की मिराज, आखिर कब तक रहेगी?
–शिवम राव मणि