किसको पूजूँ ?
समझ न आये किसको पूजूँ,
ईश यहाँ बहुतेरे हैं।
ईश्वर,अल्ला,अवध के लल्ला,
बहुत यहाँ पर फेरे हैं।
अपना स्वार्थ ही बाँट रखा है,
प्रभु को कई टुकड़ों में।
कहीं पे ईशा तो कहीं पे मूसा,
अलग रंग के मुखड़ों में।
इसके पीछे बस बात छिपी है,
राजकाज हथियाना है।
बन मदारी सब निकल पड़े हैं,
अंधी जनता भरमाना है।
किसी ने गिरिजाघर में पाला,
किसी ने रखा ताख पर।
मानव मानव को देता झांसा,
शर्म अश्रु नहीं आंख पर।
नाज किसी को है गुम्बद पर,
कहीं कंगूरे ठाट पर।
समझ तो बस वहीं आता है,
जाते हैं जब घाट पर।
टीका,टोपी, क्रास व पगड़ी,
श्रृंगार यहाँ अनेक हैं।
ग्रंथ तो कहते सबका दाता,
केवल एक ही एक है।