किराये का मकान
अच्छी हों या बुरी
आदतें जरूरत बन जाती हैं
अक्सर सुनता रहा हूँ यह बात
दिन चढ़े सोकर उठा हूँ
अरे! इतनी देर तक सोता रहा?
नहीं सुनाई दिया
मकान मालकिन का
कड़क आवाज में अपनी बेटियों को जगाना
‘अरी लड़कियों!
मर गई हो क्या, अब तक सोई हो’
अनमना सा टूथब्रश उठाता हूँ
याद आता है
ब्रश करते समय मकान मालकिन का बड़बड़ाना
नहाते समय बगल वाले तिवारी जी का पानी लेने आना
कॉलेज के लिए निकलते समय
दारा भाई द्वारा अभिवादन करना
लगता है कुछ छूट गया है
पीछे…. बहुत पीछे
शाम को थका-माँदा घर लौटता हूँ
नहीं नजर आते पड़ोस के लड़ते-झगड़ते बच्चे,
हँसती-खिलखिलाती गीत गाती हुई लड़की,
पानी का गिलास लेकर पास आती है
उदास चेहरे पर जबर्दस्ती मुस्कान ओढ़े पत्नी
‘बहुत उदास लग रहे हो’
‘तुम भी तो’
और, फिर एक लम्बी चुप्पी
रात में खाना खाते समय याद आता है
नीचे वाले पाल साहब का पुकारना
‘अरे भई! सो गए क्या’
‘नहीं, आ रहा हूँ’
फिर, भाभी जी के हाथ से बनी शर्बत
और थोड़ी-थोड़ी देर बाद तेज ठहाकों का दौर…
बहुत खाली-खाली सी लग रही है ज़िन्दगी
नए मकान में आने की खुशी
दूसरे दिन ही काफूर हो गई
यादों में टीसता रहा वह
किराये का मकान
सच है
यूँ ही नहीं कही गई है यह बात
आदतें जरूरत बन जाती हैं
अच्छी हों या बुरी।
✍🏻 शैलेन्द्र ‘असीम’