— किरायेदार हूँ —
मेरा जिस्म यहाँ किराए पर रहता है
अपनी सांसो को बेचता हूँ दिन रात
मेरी औकात तो है बस”मिटटी” जितनी
पर बात में महलो की कर जाता हूँ
कितना ही सज लूँ और संवर लूँ
कितना इस काया पर गुमान कर लूँ
खुद की हिम्मत कहाँ शमशान जाने की
इस लिए संग दोस्त अपने चार रखता हूँ
भेजा था विधाता ने किसी अलग काम को
मगर दुनिआ दारी ने उलझा दिया
अब पता है. जाना है वापिस धाम को
इस लिए भजन सिमरन में मन लगाता हूँ
अजीत कुमार तलवार
मेरठ