” किया नुकायल छी ” (व्यंग )
डॉ लक्ष्मण झा “परिमल ”
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हम विहडि मे सब दिन रहय वला सांप थिकहूँ !
बाहरि दुनियां क लेल हम सब अभिशाप थिकहूँ !!
सब दिन – राति हम एहि विहडि मे नुकायल छी !
समाज क उतेज्जित प्रतिक्रिया सं घबड़ायल छी !!
विष दन्त बुझु सब दिन उपराग हमरा देत अछि !
यदा कदा प्रयोग केने जीवित सदा वो रहित अछि !!
तें कखनो -कखनो अधरतिए मे उठि जाइत छी !
अप्पन कटुता भरल बचन कहि नुका जाइत छी !!
कियो आहत हेताह ताहिसं हमरा कोनो हर्ज नहि !
हम त गोर्रिल्ला युध्यक महारथी हमरा फर्क नहि !!
हम नहि जानि के छोट छथि के हमरा सं बरिष्ठ !
के हमर समतुल्य छथि आ के प्रिय बनल कनिष्ठ !!
विष बाण क प्रहार मे हमरा नहि अनुमान अछि !
किनका कते आहत करत तकर नहि ज्ञान अछि !!
हम अप्पन काज करि पुनः विहडि मे नुका गेलहुं !
आनक विष दन्त के कथमपि नहि स्वीकार केलहुं !!
संकीर्णता कें छोडि कें विहडि सं निकलय पडत !
सम्पूर्ण विष कें त्यागि हमरा लोग सं जुड़य पडत !!
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डॉ लक्ष्मण झा “परिमल “