किन्नर-व्यथा …
हमें भी तो जना तुमने, पिता का खून थे हम भी।
कलेजा क्यों किया पत्थर, सुनें तो माँ जरा हम भी।
दिखा दो एक भी ऐसा, कमी कोई नहीं जिसमें,
अधूरे हम चलो माना, कहाँ पूरे रहे तुम भी।
हमें किन्नर कहा जग ने, किया सबसे अलग हमको।
किया छलनी सवालों से, कहा बंजर नसल हमको।
हमें घर से निकाला क्यों, दिए आँसू खुशी लेकर,
हमारे वो खुशी के पल, करो वापस कभी हमको।
हमारे दर्द के किस्से , सुनेगा क्या जमाना ये।
हमें आँसू दिए भर-भर, हमें अपना न माना ये।
कहें भी क्या किसी से हम, यहाँ सब स्वार्थ में रत है,
खुशी में खूब गोते खा, भरें अपना खजाना ये।
खुशी जब-जब मिले तुमको, हमारा शुभ लगे आना।
खुशी में झूम कर सबकी, बजा ताली चले जाना।
हमारी एक ताली में, छिपे आँसू हजारों हैं,
तुम्हारी एक गलती का, उमर भर घूँट पिए जाना।
उड़ाकर नोट की गड्डी, भला कहते स्वयं को तुम।
गिनो आँसू हमारे भी, कभी फुरसत मिले तो तुम।
खुशियाँ छीन कर सारी, भिखारी ही बना डाला,
नपुंसक हैं अगर हम तो, कहो कैसे जनक हो तुम?
जने किसके कहाँ जनमे, नहीं कुछ ज्ञात है हमको।
यही दलदल हमारा घर, यही बस याद है हमको।
घुटी साँसें गले सूखे, नयन गीले भरे आँसू,
बजा ताली कमा खाना, यही सौगात है हमको।
कोख वही सेती है हमको,बीज वही पड़ता है हममें।
बिगड़ा मेल गुण-सूत्रों का, जो रह गयी कमी कुछ हममें।
लाडले हो तुम मात-पिता के, हम उनके ठुकराए हैं।
एक ही माँ के जाये हम-तुम, अंतर क्या तुममें हममें ?
जिस जननी ने जाया हमको, किया उसने ही हमें पराया।
जिस पिता का खून रगों में, उसे भी हम पर तरस न आया।
अन्याय समाज का अपनों का, जन्म लेते ही हमने झेला।
उलझे रहे नित प्राण हमारे, जीवन के सम-विषम में।
पूर्ण देह होकर भी रहते, कितने बंजर बीच तुम्हारे
हमें नजर भर देख सके न, दिए किसने दृग मीच तुम्हारे?
पहचान हमारी छीनने वालों, खुद को सर्वांग समझने वालों !
मन के चक्षु खोलो, दिखेंगे; श्वेत वसन पर कीच तुम्हारे!
माँ की ममता, मातृभूमि सुख, चख न पाए कभी हम।
दर्द को अपने दिल में समेटे, घुटते आए सदा हम।
फेर मुँह अनजान डगर पर, छोड़ा मात-पिता ने।
भार गमों का हँसते-रोते, ढोते आए सदा हम।
देवी-देव तुम मन-मंदिर के, तुम्हें जपेंगे तुम्हें भजेंगे।
जनें न चाहे अगली पीढ़ी, पर हम तुमको नहीं तजेंगे।
अपना कहकर हमें पुकारो, सीने से लगाकर देखो।
तज देंगे हर सुख हम अपना, सेवा तुम्हारी सदा करेंगे।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद