किन्नर: वरदान या अभिशाप
किसी इंसान में इंसानियत नहीं लिंग को पहले देखते हैं,
समाज के ही एक वर्ग को हम हय दृष्टि से देखते हैं,
जिसके मुख से निकली हर बात को दुआ बद्दुआ में तौलते है,
समाज के उसी किन्नर वर्ग को हम हिंजडा़ कहकर अपमानित करते हैं,
अपने घर के हर शुभ अवसर पर पहले जिनको न्यौता सब देते हैं,
उसी वर्ग को समाज से बेदखल कर नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं,
ईश का रूप मानते जिसे उसी से सड़क पर भीख मंगवाते हैं,
और जिसके मुंह में बसी सरस्वती उसी को हम धिक्कारते है,
अपमानित करते हम उनको इतना कि उनकी पहचान तक को सीमित कर देते हैं,
तभी तो ताली बजाने के तरीके से सब इनको दूर से पहचानते हैं,
इनकी परवरिश पर उंगली उठाते पर अपनी परवरिश भूल जाते हैं,
तभी तो हर इंसान में इंसा नहीं हैवानियत के ही दर्शन पाते हैं,
होता इनमें हुनर बहुत और इसको साबित भी यह करके दिखाते हैं,
लेकिन अपने गुरूर के आगे हम इनके हुनर तक को रौंद डालते हैं,
हिंजड़े वो नहीं समाज में हिंजड़े का किरदार तो हम निभाते हैं,
औरत बच्चों पर वश चलाकर पता नहीं कहां का मर्द समझते हैं,
खुद कुछ कर नहीं सकते इसलिए उनको भी आगे बढ़ने से रोकते हैं,
करते खुद नपुंसक वाले काम और बदनाम किन्नर वर्ग को करते हैं।