किताब का गुलाब
किताब का गुलाब….
जर्जर सा संदूक
बंद अरमान बेताब
सहेज कर रखी
वो पुरानी किताब
फटे पन्नों के बीच
वो सूखा गुलाब
मुरझाया कुम्हलाया
देखता ख़्वाब
एक दिन तुम आओगे
नर्म हाथों में उठाओगे
काँपते अधरों से चूमोंगे
भीगी पलकों से सींचोगे
स्पंदित हिय से लगाओगे
श्वासों से प्राण फूंकोगे
और वह फिर खिल उठेगा
खिल उठेगा जैसे…….
खिलती स्वर्णिम भोर
खिलता बरखा में मोर
खिलती कच्ची कली
खिलता बाग में अलि
खिलती चाँदनी चमक
खिलता नभ में धनक
खिलती गुनगुनी धूप
खिलता यौवन में रूप
खिल उठेगा वो गुलाब
ख़्वाब ये रह गया ख़्वाब
वो तो बस सहेजा जाएगा
आज इस,कल दूसरी किताब।
रेखांकन।रेखा