कितनी निर्भया और ?
बोलो ! कितनी और निर्भया,
यहाँ जलाई जाएंगी ?
कब तक ‘हम निंदा करते’
ये बात सुनाई जायेंगी ?
कब तक, उन वहशी लोगों को
ज़िन्दा छोड़ा जाएगा ?
आख़िर कब तक मानवाधिकार का
चोला ओढ़ा जाएगा ?
बोलो ! आख़िर कब तक लड़कों से
‘गलती होती जाएगी’?
आख़िर कब तक भारत माँ
इन दुष्टों को ढ़ोती जाएगी ?
कब तक दिल्ली मौन रहेगी
उन वहशी, हत्यारों पर ?
आश्रित कब तक लोग रहेंगे
बस ‘निंदा के नारों’ पर ?
कब तक दीपक लिए हाथ,
हम शोक मनाते जाएंगे?
‘मेरा भारत है महान’
कब तक दोहराते जाएंगे ?
द्रुपद सुता की साड़ी, आख़िर
कब तक खींची जाएगी ?
भरी सभा में आख़िर कब तक
आँखें मींची जायेंगी ?
कब तक ज्ञानी भीष्म पितामह,
मौन खड़े रह जाएंगे ?
कब तक गुरु के शिष्य यहाँ
वहशीपन को दिखलायेंगे ?
आख़िर में, हे भीम ! तुम्हें
फ़िर रण दिखलाना ही होगा ।
दुःशासन की जाँघ तोड़कर
नर्क पठाना ही होगा ।
वो महिला का वक्ष नहीं,
भारत माँ की ही छाती है ।
जिस पर, कपटी दुष्टों की
बस गंदी नज़रें जाती है ।
जो अपनी बहनों से तो
राखी बँधवाता रहता है।
मगर दूसरों की बहनों को
लक्ष्य बनाता रहता है ।
जिसके लिए यहाँ महिला
बस भोग्य वस्तु की थाली है।
बहन और माँ कोई नहीं है
बस केवल इक गाली है ।
जिसने सोती महिला का यूँ
बलात्कार कर ड़ाला था ।
उसके सारे ही शरीर को
क्षत-विक्षत कर ड़ाला था।
ऐ दिल्ली ! अब दिखला सबको
कि तुझमें कितना दम है !
लेकिन ऐसे लोगों को, फाँसी
देना भी तो कम है ।
ऐसों को नंगा करके टाँगों
दिल्ली के चौराहों पर ।
महिलाएँ पत्थर मारें
जाते जाते उन राहों पर।
अब तो बलात्कारियों में
थोड़ा सा खौफ़ ये भर दो तुम ।
भरे बीच चौराहे इनको
इक बार नपुसंक कर दो तुम ।
— सूर्या