कितनी जमीन?
कितनी जमीन?
जितनी है उतनी काफी है।
संतुष्टी में इंसाफ़ी है।
थोड़ा भी ज्यादा हो जाता।
जब संतोष हृदय में आता।।
बिन संतोष व्यर्थ सब संपत।
“हाही” में दरिद्रता जागृत।।
जहाँ खड़े आकाश अनंता।
फिर जमीन से क्यों हो नाता??
वह बहुतायत जो दें ईश्वर।
वही स्वयं सच्चे भूमेश्वर।।
रख विश्वास चलेगा जीवन।
प्रभु का धाम असीमित उपवन।।
ईश्वर कानन में नित रहना।
मत जमीन के लिए झगड़ना।।
ईश्वर ही हैं सर्व संपदा।
वे ही काटें सारी विपदा।।
साहित्यकार डॉ0 रामबली मिश्र वाराणसी।