— कितना मुकुर जाते हैं —
लिख दिआ सो लिख दिआ
लिखा हुआ कभी मिटता नहीं
मुंह के बोल जो कभी रूकते नहीं
लिखा हुआ कभी कहीं भागता नहीं
मुख से कहने से लोगों के
अंदाज बदल जाते हैं
कभी कभी वैसे भी
लिखने वाले लोग पलट जाते हैं
भरोसा कर के लिखा जाता है
पर फिर भी अरमान पिघल जाते हैं
कहने वाले तेरे दिल में क्या था
यह चाह कर भी नहीं कह पाते हैं
खेल जाते हैं लोग खिलौना समझ कर
मुसाफिर की तरह आते जाते हैं
दो सही शब्दों की खातिर
जीवन भर के लिए मुकर जाते हैं
वाह रे विधाता तेरी बनी दुनिआ
में लोग कैसे कैसे रंग दिखाते हैं
लिख कर पलटना , फिर भी पलटना
न जाने कहाँ से सीख के आते हैं
अजीत कुमार तलवार
मेरठ