कितना अच्छा होता…..
शहर नहीं मैं आता……
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कितना अच्छा होता गर
शहर नहीं मैं आता,
मित्रजनों के संग में रहता
फुला नहीं समाता।
करता अपने मन का सबकुछ
जो मेरे मन में आता
हसी ठीठोली या शैतानी
जो इस दिल को भाता ।
सुबह सबेरे खेतों में मैं
करता छक कर काम
माँ के हाथ का भोजन कर
पाता मन विश्राम।
आज के जैसा तब शायद
ना इतना विवश मैं होता
गर अपनों का संगा जो होता
मैं ना आपा खोता।
गांव में रहता सुख करता मैं
चैन की बंशी बजाता
शहर के जैसा बैल कोल्हू का
कोई नहीं बनाता।
गांव में रहता सुख से रहता
भागमभाग न होता
ना पैसो की आपाधापी
अवसाद तनिक ना होता।
जीवन का हर रंग सुनहरा
गांव में हमको मिलता
हित परित के संग में चेहरा
फुल सरीखे खिलता।
शहर में आकर हमनें सारे
पल स्वर्णिम खोये
समय पास था समझ न आई
अब क्या होगा रोये।
……
©®पं.संजीव शुक्ल “सचिन”
24/11/2017