काहे का अन्नदाता!!
जब हो गया खूब फजीता,
तब सड़कों पर उतरा अन्न उपजाता,
मुझसे क्यों रुठ गये,शासक भ्राता,
मैं तो हूं सबका अन्नदाता।
यह कानून नहीं मेरे हित में,
वापस ले लो इनको विधि निर्माता,
बूरा मान गए सत्ता के चालक,
और कहने लगे काहे का अन्नदाता।
उगाता है, तो बेचकर चला जाता है,
फिर जो भी लेकर इसको आता है,
मुल्य वह उसका चुकाता है,
तब जाकर अपनी थाली सजाता है,
यह कोई हमें मुफ्त में नहीं दे जाता,
जो आज हमें यह ऐंठ दिखाता।
अब जब बात तकरार तक पहुंचीं,
मतभेदों की लंबी रेखा गई खींची,
दोनों ओर से भृकुटियां तन गई,
बात बनते बनते रह गई।
उसमें तड़का उन्होंने लगाया,
जिनको समझ रहे थे ठुकराया,
वही इनके पैरोकार बन कर उभरे,
संसद से लेकर सड़क पर हैं उतरे,
यही अब इनकी आवाज उठा रहे हैं,
किसान इनसे बच कर भी नहीं बच पा रहे हैं,
अब नहीं रहा सम्मान था जो उसका,
हकदार रहा है सदा से ही जिसका।
अब कोई उसे अन्नदाता नहीं पुकारते,
उल्टा उसे ही आज हैं धिक्कारते।