काहीलियत
जिस्म बिस्तर पे पसर जाता है
रूह कहती है उठ नमाज़ पढ़ ले,
जिस्म को हिला नहीं जाता
बिस्तर और कस के चिमट जाता है थोड़ी देर रुक जा
ना जा…. ना जा…
“अबे उठ जा डर नही तुझे ? खुदा का खौफ खा”
और जिस्म बेचारा फेविकोल से चिपका मजाल है जो टस से मस हो
और दिमाग इस भसड़ में भन्नाया हुआ
पड़ा रहता है
लड़ लो कुत्तों
मैं बस देखूँगा
और आधे घण्टे के ड्रामे के बाद
जिस्म घिसट घिसट के घिसट घिसट के रिंगता हुआ
वज़ू करने जा रहा होता है
और नमाज़ में वो मौत आती है जो गर्मी की दोपहरी में दाल भात खा के भी न आए