काश !
ऋतु वसंत में
वो मूंदते हैं अँखियों को
काली रातों में
आस किरण के संजो स्वप्न
कि खुलेंगी पलकें
तो शायद
होगी कोई नव वासंती भोर
सम्मुख हमारे भी
और होंगे
वारे-न्यारे
लेकिन बेचारे
जागते हैं जब
तो
होता है सम्मुख….
वही नंग-धड़ंग बचपन बिलखता-सा
वही अधढंका असुरक्षित यौवन सिहरता-सा
वही जर्जर बुढ़ापा खांसता खंखारता-सा
क्षुधा वहीं अतृप्त-सी
बेबसी वहीं सिसकती-सी
लाचारी वहीं रुआंसी-सी
हताशा वहीं कुंठित-सी…
सुना है ऋतुएं जग में कई आती हैं जाती हैं
मगर न बदलती है
तो उनकी ऋतु कभी भी
हर मौसम में समभाव गरीबी का मौसम….
आ गया देखो फिर वसंत…
वसंत में तो…
प्रकृति भी नव निधि पाती है
स्वयं को संवारती है
सजाती है
शायद कहीं….
कुछ
चमत्कार हो जाए कभी
उनके जीवन में भी बहार छा जाए कभी
काश! ऐसा वसंत आ जाए कभी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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