काश
मेले की पंगडंडियों पर
बाप की अँगुली थामकर
उचकते अंस..
काश..
यादें भी कहीं
साकार होकर
साथ चलतीं
..गर्व से तन जाते
अपने कंधे
अब भी पर्वतों से..।
काश..
यादें भी कभी
तो मूर्त हो
मुलाकात करतीं..
माँ के
आँचल तले के मोद,
उस चिर तृप्ति..
से मिल,
सहज ही
सब छू हो जातीं उलझनें,
तृष्णाएँ ये।
काश..
यादें भी जरा
प्रत्यक्ष हो
कुलांच भरतीं..
मन के सारे पर्त
खुल जाते आज भी,
राखी की थाली के
आगे
बहन की चोटी छुपाने के
रहस्य से।
✍ रोहिणी नन्दन मिश्र