काश हम पंछी होते…
काश हम पंछी होते ,
नील गगन में स्वछंद विचरते ।
ना समाज का बंधन ,
ना समाज की कुरीतियों ,कुप्रथाओ ,
आदि का बंधन ।
बंधनरहित होकर स्वतंत्रता के साथ ,
उड़ते कभी इस डाल पर ,
तो कभी उस डाल पर ।
जहां जी चाहे वहां बैठते ।
देश,क्षेत्र ,भाषा,धर्म की दीवारों को ,
तोड़कर जहां मर्जी बैठते।
कभी मंदिर ,कभी मस्जिद ,कभी गिरजाघर ,
या गुरुद्वारे ।
क्योंकि इंसान की तरह धर्म की ,
जंजीरों में हम न जकड़े होते।
धन दौलत ,जागीर ,घर मकान ,गाड़ी ,
बैंक बैलेंस और कीमती जेवरों के ,
मोह जाल में न फंसे होते ।
वृक्ष ,पर्वत ,मकान का छोटा सा कोना ,
जहां मन चाहता छोटा सा घोंसला ,
बनाकर रहते ।
इंसानों की तरह हम पारिवारिक रिश्तों
की डोर से भी न बंधे होते ।
वियोग हो जाये मृत्यु के कारण ,
या मनमुटाव किसी गलत फहमी की वजह से ,
रिश्ता टूट जाए तो कितना दुख होता है।
पंछी होते हम इन दुखों का शोक ना मनाते ।
भगवान ने जैसा भी और जितना भी जीवन दिया,
उसी में संतोष कर जीते ।
इंसानी योनि के हर प्रकार के दुख ,क्लेश ,
अनचाहे बंधन से मुक्त होते ।
काश ! हम पंछी होते ।