काश हमारी भी पेंशन होती ( लघुकथा)
काश हमारी भी पेंशन होती ( लघुकथा)
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दीपक की साठ वर्ष की आयु अभी-अभी पूरी हुई और विधि का विधान देखिए ! एक जमाना था जब हर साल लाखों रुपए टैक्स के जाते थे । दुकान अच्छी चलती थी ।आमदनी खूब होती थी । इनकम-टैक्स देने में भी कोई दिक्कत नहीं आती थी ।
धीरे-धीरे घर-गृहस्थी में लड़के की नौकरी लग गई और वह अपने काम से बाहर रहने लगा। एकमात्र पुत्र था ।जब वह बाहर चला गया तो दीपक का मन भी उदास हो गया ।व्यापार में उतना मन नहीं लगता था ।धीरे-धीरे आमदनी कम होती गई। कुछ पैसा दुकान से निकाल कर बेटे की शादी में खर्च कर दिया ।कुछ पैसा दीपक ने अपने घर को बनाने में और सऀवारने में खर्च कर दिया । खर्चा कुछ ज्यादा ही हो गया और दुकान कमजोर पड़ गई। दुकान का हिसाब तो यह था कि जितनी लागत लगाओ, उतनी ही आमदनी होती है। अब जब दुकान में लागत ही कम रह गई ,तो आमदनी कहाऀ से हो ?
आज जब साठ वर्ष की दीपक की आयु हुई तो वह अपने घर के आऀगन में सिर पकड़ कर बैठे थे। पत्नी ने पूछा “क्या बात है ? इतने उदास क्यों हो ?”
दीपक कहने लगे “अब घर के खर्चे के लिए पैसा नहीं है। दुकान ठप हो चुकी है।”
पत्नी चौंक गयी “फिर गुजारा कैसे चलेगा?
” यही तो मैं भी सोच रहा हूऀ “दीपक ने कहा । “लाखों रुपए हर साल हमने सरकार को इनकम-टैक्स,सेल्स-टैक्स के रूप में दिया है और अब ….”
“अब क्या .? “पत्नी ने चौंक कर पूछा, “क्या कोई सरकार हमारे लिए पेंशन की व्यवस्था नहीं करेगी ? कुछ भी नहीं तो जितना हम इनकम-टैक्स देते थे उसका आधा ही हमें दे दे । कम से कम दस -बीस हजार रुपये तो पेंशन होनी ही चाहिए ।”
दीपक ने गहरी साऀस ली और कहा “ऊऀट के मुऀह में जीरा भले ही डाल दिया जाए ,लेकिन गुजारे-लायक पेंशन तो मिलती नजर आ नहीं रही …”
पत्नी का चेहरा सफेद पड़ने लगा था।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा ,रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997 61 5451