काश कहीं ऐसा होता ( काव्य संग्रह :- सुलगते आँसू )
सोचो काश कहीं ऐसा होता
बनाने वाले ने हम इंसानो को भी
काश खुद की तरह पत्थर का बनाया होता
न तो होते सीने मे जीते जागते धरक्ते हुए दिल
और न ही होते किसी तरह के कोई एहसास कोई जज्बात
हर तमन्नाओं से महफूज, हर एहसास से खाली
होता ये छोटा सा दिल
सोचो काश कहीं ऐसा होता
बनाने वाले ने हम इंसानो को भी
काश खुद की तरह पत्थर का बनाया होता
तो शायद
नहीं यक़ीनन
हम इंसानो की ज़िन्दगी क़ुछ इस तरह होती
हर एहसास , हर जज्बात से खाली
न ही क़ुछ पाने की ख़ुशी
और न ही क़ुछ खोने का गम
न ही दिल मे क़ुछ जीतने की तमन्ना
और न ही क़ुछ हरने का डर
काश कहीं ऐसा होता
तो कितना अच्छा होता
हम इंसानो की भी एक ऐसी दुन्या बनती
जहाँ लोग आपस मे
करते न किसी से नफरत
और न ही करते किसी से मुहब्बत
न ही उठती कही नफरतों की चिंगारी
और न ही लगती कही मजहब व सम्प्रदायिक्ता की आग
न ही बनती कोई ऒरत बेवा
और न ही होता कोई मासूम अनाथ
न तो मरते कोई बेगुनाह
और न ही सुनी होती किसी माँ की गोद
हर तरफ होताअमन , चैन सकून व शांती का माहोल
सोचो काश कहीं ऐसा होता
बनाने वाले ने हम इंसानो को भी
काश खुद की तरह पत्थर का बनाया होता
तो शायद इस दुन्या मे
न तो बनता कोई हीर -रांझा
और न ही बनता कोई लेला मजनू
न तो करता कोई तामीर
मुहब्बत की जीती जगती निशानी
उस ताजमहल की
और न ही यादों के भंवर मे खिलता कोई हसीं कमल
किसी की याद मे
न तो लिखता कोई शाम सहर शोख ग़ज़ल
और न ही बनता कोई कवि कोई शायर
न तो रुलाती किसी आशिक को किसी महबूबा की बेवफाई
और न ही जलता कोई
इश्क़ मुहब्बत प्यार वफ़ा की आग मे
सोचो “साहिल” कितना अच्छा होता
बनाने वाले ने हम इंसानो को भी पत्थर का बनाया होता
हम ईन्सानो को भी पत्थर का बनाया होता