काव्य का एक नया रस – “ विरोधरस “ + डॉ. अभिनेष शर्मा
काव्य का एक नया रस – “ विरोधरस “
+ डॉ. अभिनेष शर्मा
————————————————–
शोध कृति क्रोध “ विरोधरस “ में श्री रमेशराज ने समझाया है कि क्रोध और आक्रोश में महीन अंतर है | क्रोध अपने विरोधी का विनाश करता है , आक्रोश केवल विनाश की कामना करता है | वह विचारों को बदलने की क्षमता रखता है | विरोध बर्बर आततायी पक्ष को वैचारिक रूप से परिवर्तन की ओर ले जाना चाहता है जबकि क्रोध शत्रु पक्ष का केवल और केवल विनाश करता है |
अब तक साहित्य में जितने रस विराजते हैं , उनकी आभा का एक अलग स्वरूप है , परन्तु “ विरोधरस ” जिसे साहित्य जगत में रमेशराज ने स्थापित करने का प्रयास किया है, स्तुत्य इसलिए है क्योंकि राज जी ने इस नये रस के प्रत्येक अंग पर विस्तार से चर्चा की है |
किसी भी व्यवस्था, विचार, विसंगति, चरित्र, व्यक्तिविशेष , या परम्परा का विरोध करना समाज की सनातन रीति रही है | इस रीति को पूर्ववर्ती रसाचार्यों ने स्थायी भाव साहस या क्रोध के साथ रखकर वीररस अथवा रोद्र्रस के रूप में स्थापित किया है | रसचिंतन को आगे बढ़ाते हुए श्री रमेशराज ने समीक्ष्य पुस्तक “विरोधरस” में बताया है कि वीररस , रौद्ररस से विरोध रस पूरी तरह प्रथक है | विरोध आक्रोशित असहाय, निर्बल आदमी का बयान है | विरोध का जन्म स्थायी भाव आक्रोश से होता है | डॉ. नरेशपाण्डेय चकोर के शब्दों में-
“ विरोधरस ” सचमुच शोधपूर्ण और स्व्गात्योग्य कृति है | इसे नये रस के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए |
———————————————————————
डॉ.अभिनेष शर्मा, देव हॉस्पिटल, खिरनी गेट , अलीगढ़
मोबा.-9837503132