*काल क्रिया*
Dr Arun kumar shastri एक अबोध बालक 0 अरुण अतृप्त
* काल क्रिया *
मेरा अनुभव मेरे प्रारबधिक अनुशासन की
सीमाओं से सीमित हैं ।
अनुशंसा की रेखाओं से घिरे हुए अद्यतन अनुशंसित हैं ।
अटल नहीं है कुछ भी जग में, जग तो पल पल बदल रहा ।
जग की इसी प्रतिष्ठित प्रतिभ प्रतिष्ठा से , मन मानव का है भीग रहा ।
आया था सो चला गया , नवनीत उजस फैला नभ में
चहुं और उजाला छाया ।
नव अंकुर प्रति पल धधक रहे , हर तन में शंकित हृदय प्रणय भाव के बीज पनप रहे।
छोटी चिड़िया से फुदक रहे हर कोई यहाँ फिर भी देखो ।
कुछ नया खेल दिखलायेगा ये युग है परिवर्तनशील सदा।।
बस यही सत्य रह जायेगा बस यही सत्य रह जायेगा ।
तुम मानो या ना मानो जो कहनी थी सो कह दी मैंने।
ये दंभ नहीं मेरे विचार हैं, मेरी अनुभूति है मेरी प्रज्ञा है।
प्राकृत प्रकृति सा आशय है किंचित न इसमें संशय है।
मैं एक अकेला अलबेला कहने को निपट गंवार कहो।
ज्ञान विज्ञान से दूर नहीं समझो, तुमसा भी कोई और नहीं।
मेरा अनुभव मेरे प्रारबधिक अनुशासन की
सीमाओं से सीमित हैं ।
अनुशंसा की रेखाओं से घिरे हुए अद्यतन अनुशंसित हैं ।
लड़ता हूं अपने प्रारब्ध से जुड़ा हूं अपने अतीत से वर्तमान तक।
काल की सतत क्रिया से बंधा हुआ काल चक्र में आकंठ डूबा।
राशियों का समीकरण बदलने को भाग्य के साथ चल रहा।
हाथ की रेखाओं को मिटाने की कोशिश करता हुआ, जीत दर्ज कर रहा।
तुम अपनी जानो मैं अपनी बात रख रहा, मानव हुं, विधाता की अनुपम रचना।
आशय विशेष महत्त्व अनिमेष उत्कृष्टता की ओर पल पल क़दम कदम बढ़ रहा।
मेरा अनुभव मेरे प्रारबधिक अनुशासन की
सीमाओं से सीमित हैं ।
अनुशंसा की रेखाओं से घिरे हुए अद्यतन अनुशंसित हैं ।