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31 May 2024 · 1 min read

कारगिल युद्ध के समय की कविता

मैं कैसे मान लूँ, कि-
बसंत आ गया, जबकि
सीमा पर हमारे सिपाही,
पतझड़ के पत्तों की तरह गिर रहे हों ।

मैं कैसे मान लूँ, कि-
पावस आ गया, जबकि
शहीद की वेवा के आँसू,
रो-रोकर सूख गए हों ।

मैं कैसे मान लूँ, कि-
आज कोई उत्सव है, जबकि
शहीद की माँ का गला,
क्रंदन करते-करते रुंध गया हो ।

मैं कैसे मान लूँ, कि-
सावन है, जबकि
शहीद की बहन प्रतीक्षा करके थक गयी हो,
क्योंकि सावन में तो रक्षाबंधन है ।

मैं कैसे मान लूँ, कि-
आज वैशाखी है, जबकि
सीमा पर लड़ कर लौटे सिपाही की किस्मत में,
अब बन्दूक नहीं, बैसाखी है ।

मैं कैसे मान लूँ, कि-
बसंत आ गया, जबकि
सीमा पर हमारे सिपाही,
पतझड़ के पत्तों की तरह गिर रहे हों ।

मैं कैसे मान लूँ, कि-
पावस आ गया, जबकि
शहीद की वेवा के आँसू,
रो-रोकर सूख गए हों ।

मैं कैसे मान लूँ, कि-
आज कोई उत्सव है, जबकि
शहीद की माँ का गला,
क्रंदन करते-करते रुंध गया हो ।

मैं कैसे मान लूँ, कि-
सावन है, जबकि
शहीद की बहन प्रतीक्षा करके थक गयी हो,
क्योंकि सावन में तो रक्षाबंधन है ।

मैं कैसे मान लूँ, कि-
आज वैशाखी है, जबकि
सीमा पर लड़ कर लौटे सिपाही की किस्मत में,
अब बन्दूक नहीं, बैसाखी है ।

(C)@दीपक कुमार श्रीवास्तव “नील पदम् “

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