कायदे…
छोड़ दी है हमने अब, कामयाब होने की ज़िद
सुना है झूठ के हाथों, बहुत खिताब बिकते हैं…
वो ईमान का दम भरता रहा, झुकी कमर लेकर
सालों जिसके बच्चे, जरूरतों के लिए तरसते हैं…
तुम किस चकाचौंध की बात करते हो ज़नाब
यहाँ के शख्स खंजर लेकर, बाहर निकलते हैं…
मुश्किलों से बचाया है मैंने, अपना दीन-ईमान
घड़ी भर में यहाँ तकदीरों के, फैसले बदलते हैं…
कहने को तो मुट्ठीभर ही, रिश्ते थे दामन में
पर कहाँ दुनियादारी के ये, कायदे संभलते हैं…
– देवश्री पारीक ‘अर्पिता’