“काफ़िला” वक्त का
एक दौर में हज़ारों की तरह ही,
हम भी थे वक़्त के काफ़िले में शामिल।
वक़्त का काफ़िला बोला हमसे,
तेरा मेरे संग चलना है मुश्क़िल।
फ़ैसला सुन ले मेरा, तू ए दूर के राही!
कोसों के फ़ासलों पर हँस रही मंज़िल।
धुँध कोहरा छाये या आये बरखा तूफ़ानी,
हमनें कहा हर हाल में कर लेंगे उसको हासिल।
तू मत कर फ़िक्र हमें देखकर, ए वक़्त के काफ़िले!
यूँ ही क़तरे-क़तरे नीर से ही भर लेंगे हम सूखी झील।
हमनें कहा हज़ारों की भीड़ में भले हम हो गये हैं ग़ुम,
कभी हमें देखनें ख़ातिर सजेगी करोड़ों की महफ़िल।
एक दिन आयेगा, जब आशिक़ी देखकर वो हमारी,
दौड़ आयेगी हमसे मिलनें हमारी माशूका मंज़िल।
होगी मुलाक़ात कि दरमियां दूरियाँ ख़ुद मिट जाएंगी,
वो कहेगी बस थाम ले क़दम मैं हाज़िर हू राही क़ाबिल!
-रेखा “मंजुलाहृदय”