काफ़िर इश्क़
गीली ज़मीन तस्दीक थी घायल आसमां की
वक़्त की आँख में तिनका कोई गिरा होगा
बौराया सा फिरता था रात से टूटा टुकड़ा
काजल नहीं कोई ख़्वाब ही जला होगा
बांध दो मुझे बारिशों का पनीला ताबीज़
नज़र उतारने का भ्रम कोई बचा होगा
मखमली कोहरे में नाव कोई समेटे हुए
हद से अनहद का सफ़र यूँ कटा होगा
जमा है इंतज़ार शाम की आस्तीन पर
इश्क़ से मुलाकात का वादा किया होगा
कहानी के भीतर कहानी एक चलती है
रूह की सिहरन में कुछ सुलगता रहा होगा ।